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Shayari

तारीकियों को आग लगे और दिया जलेजो मेरे साथ मोहब्बत में हुई आदमी एक दफा सोचेगामैं ज़िन्दगी में आज पहली बार घर नहीं गयाघर में भी दिल नहीं लग रहा काम पर भी नहीं जा रहामैं जिस के साथ कई दिन गुज़ार आया हूँ ये एक बात समझने में रात हो गई है शोर करूँगा और न कुछ भी बोलूँगाजाने वाले से राब्ता रह जाएआईने आंख में चुभते थे बिस्तर से बदन कतराता था मेरी आंख से तेरा गम छलक तो नहीं गयारात को दीप की लो कम नहीं रखी जातीख़ुद पर जब इश्क़ की वहशत को मुसल्लत करूँगातारीकियों को आग लगे और दिया जले न नींद और न ख़्वाबों से आँख भरनी हैबता ऐ अब्र मुसावात क्यूँ नहीं करताये एक बात समझने में रात हो गई हैसफ़ेद शर्ट थी तुम सीढ़ियों पे बैठे थेतमाम रात सितारों से बात रहती थीमैं सपनों में ऑक्सीजन प्लांट इंस्टॉल कर रहा हूँदिन में मिल लेते कहीं रात ज़रूरी थी क्या?"ख़ुदा का सवाल"हवा के चलते ही बादल का साफ़ हो जानासोचता हूँ कि उस की याद आख़िरकल रात बहुत गौर किया है सो हम उसकी कोई दम भी मैं कब अंदर रहा हूँएक ही मुज़्दा सुब्ह लाती हैमैं सो रहा हूँ तेरे ख़्वाब देखने के लिए दिन ढल गया और रात गुज़रने की आस मेंज़िंदगी को ज़ख़्म की लज़्ज़त से मत महरूम कर जब कभी फूलों ने ख़ुश्बू की तिजारत की है पुराने दाँव पर हर दिन नए आँसू लगाता है तुम्हारे नाम पर मैं ने हर आफ़त सर पे रक्खी थी ज़िंदगी की हर कहानी बे-असर हो जाएगी सबब वो पूछ रहे हैं उदास होने का सब को रुस्वा बारी बारी किया करोज़िंदगी की हर कहानी बेअसर हो जाएगीरात की धड़कन जब तक जारी रहती हैदिल बुरी तरह से धड़कता रहामाँग सिन्दूर भरी हाथ हिनाई करकेतुम्हारी याद के दीपक भी अब जलाना क्या मुझ को वहशत हुई मिरे घर से तिरी सम्त जाने का रास्ता नहीं हो रहा जागना और जगा के सो जानाजागना और जगा के सो जानाजागना और जगा के सो जानाउनके गेसू खुलें तो यार बने बात मेरीउस के ख़त रात भर यूँ पढ़ता हूँ दिल फिर उस कूचे में जाने वाला है मिरी हयात ये है और ये तुम्हारी क़ज़ा तुम्हें इक बात कहनी थी रात के जिस्म में जब पहला पियाला उतराफिर मिरी याद आ रही होगीबात करनी है बात कौन करेला फिर इक बार वही बादा ओ जाम ऐ साक़ी ला फिर इक बार वही बादा ओ जाम ऐ साक़ी हंसी छुपा भी गया और नज़र मिला भी गयाप्यार की रात हो छत पर हो तेरा साथ तो फ़िररंग बे-रंग हों ख़ुशबू का भरोसा जाए हमारा अज़्म-ए-सफ़र कब किधर का हो जाएआते आते मिरा नाम सा रह गया"ख़्वाब नहीं देखा""दीवाने की जन्नत"ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं कि 'फ़राज़' जुज़ तिरे कोई भी दिन रात न जाने मेरे जब भी दिल खोल के रोए होंगे अजब जुनून-ए-मसाफ़त में घर से निकला था मुंतज़िर कब से तहय्युर है तिरी तक़रीर का सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला उस ने सुकूत-ए-शब में भी अपना पयाम रख दिया दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वालातेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छादूर रह कर न करो बात क़रीब आ जाओ महफ़िल में तेरी यूँ ही रहे जश्न-ए-चरागाँइतनी हसीन इतनी जवाँ रात क्या करें दूर रह कर न करो बात क़रीब आ जाओ ये ज़ुल्फ़ अगर खुल के बिखर जाए तो अच्छा रात सुनसान थी बोझल थीं फ़ज़ा की साँसेंहिरासहाल मीठे फलों का मत पूछो चलती साँसों को जाम करने लगा तेरे जैसा कोई मिला ही नहीं चलती साँसों को जाम करने लगामौत की सम्त जान चलती रहीएक मेहमाँ का हिज्र तारी हैज़रा मोहतात होना चाहिए था तेरे जैसा कोई मिला ही नहीं फिरते हैं कब से दर-ब-दर अब इस नगर अब उस नगर इक दूसरे के हम-सफ़र मैं और मिरी आवारगीब-ज़ाहिर क्या है जो हासिल नहीं हैवो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है प्यास की कैसे लाए ताब कोई जो बात कहते डरते हैं सब तू वो बात लिखदर्द बे-रहम है मैं कितनी सदियों से तक रहा हूँ कुछ तुम ने कहा गलियाँ रात यूँ दिल में तिरी खोई हुई याद आई कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगीजब तुझे याद कर लिया सुब्ह महक महक उठी आप की याद आती रही रात भरकुछ मोहतसिबों की ख़ल्वत में कुछ वाइ'ज़ के घर जाती है अब जो कोई पूछे भी तो उस से क्या शरह-ए-हालात करें 'आप की याद आती रही रात भर'' हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है शाम-ए-फ़िराक़ अब न पूछ आई और आ के टल गई कब ठहरेगा दर्द ऐ दिल कब रात बसर होगी कब याद में तेरा साथ नहीं कब हात में तेरा हात नहीं बात बस से निकल चली है कब तक दिल की ख़ैर मनाएँ कब तक रह दिखलाओगे हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो हैकब याद में तेरा साथ नहीं, कब हात में तेरा हात नहींदर्द थम जाएगा ग़म न कर, ग़म न कर गुल हुई जाती है अफ़्सुर्दा सुलगती हुई शाम शाम के पेच-ओ-ख़म सितारों से इक ज़रा सोचने दो आज की रात साज़-ए-दर्द न छेड़ ये धूप किनारा शाम ढले गर मुझे इस का यक़ीं हो मिरे हमदम मिरे दोस्त आज के नाम और कुछ देर में जब फिर मिरे तन्हा दिल को तुम मिरे पास रहो मिरे दिल, मिरे मुसाफ़िर गर मुझे इस का यक़ीं हो मिरे हमदम मिरे दोस्तदाद तो बाद में कमाएँगेउस ने कोई तो दम पढ़ा हुआ हैये वहम जाने मेरे दिल से क्यूँ निकल नहीं रहाजिस पर हमारी आँख ने मोती बिछाए रात भरकिताबें, रिसाले न अख़बार पढ़नाचराग़ों को आंखों में महफ़ूज़ रखनारात का इंतज़ार कौन करेकभी यूँ भी आ मिरी आँख में कि मिरी नज़र को ख़बर न होख़ुशबू की तरह आया वो तेज़ हवाओं में जब रात की तन्हाई दिल बन के धड़कती है किसी की याद में पलकें ज़रा भिगो लेते कभी तो शाम ढले अपने घर गए होते सोचा नहीं अच्छा बुरा देखा सुना कुछ भी नहीं होंटों पे मोहब्बत के फ़साने नहीं आते अगर यक़ीं नहीं आता तो आज़माए मुझे उदास रात है कोई तो ख़्वाब दे जाओरेत भरी है इन आँखों में आँसू से तुम धो लेनाकौन आया रास्ते आईना-ख़ाने हो गएमिरी ज़िंदगी भी मिरी नहीं ये हज़ार ख़ानों में बट गईउदास आँखों से आँसू नहीं निकलते हैंपत्थर के जिगर वालो ग़म में वो रवानी हैफूल बरसे कहीं शबनम कहीं गौहर बरसेख़ानदानी रिश्तों में अक्सर रक़ाबत है बहुतमेरे सीने पर वो सर रक्खे हुए सोता रहासोए कहाँ थे आँखों ने तकिए भिगोए थेसुब्ह का झरना हमेशा हँसने वाली औरतेंइक परी के साथ मौजों पर टहलता रात कोपहला सा वो ज़ोर नहीं है मेरे दुख की सदाओं मेंज़र्रों में कुनमुनाती हुई काएनात हूँमिरी नज़र में ख़ाक तेरे आइने पे गर्द हैपिछली रात की नर्म चाँदनी शबनम की ख़ुनकी से रचा हैसिसकते आब में किस की सदा हैमेरी आंखों में तिरे प्यार का आंसू आएकहाँ आँसुओं की ये सौग़ात होगीन जी भर के देखा न कुछ बात कीसौ ख़ुलूस बातों में सब करम ख़यालों मेंकहीं चाँद राहों में खो गया कहीं चाँदनी भी भटक गई महफ़िल में आज मर्सिया-ख़्वानी ही क्यूँ न होसारी दौलत तिरे क़दमों में पड़ी लगती हैतुम्हारे जिस्म की ख़ुश्बू गुलों से आती हैवो सुबह सुबह आए मेरा हाल पूछनेरात बाक़ी थी जब वो बिछड़े थेवो जो आए हयात याद आईशायद किसी बला का था साया दरख़्त परतुम हो तो क़रीब और क़रीब-ए-रग-ए-जाँ होन पूछ कितने है बेताब देखने के लिएफूल ने टहनी से उड़ने की कोशिश कीखुली किताब के सफ़्हे उलटते रहते हैंकाँच के पीछे चाँद भी था और काँच के ऊपर काई भीरुके रुके से क़दम रुक के बार बार चलेजब भी आँखों में अश्क भर आएतुझ को देखा है जो दरिया ने इधर आते हुएओस पड़ी थी रात बहुत और कोहरा था गर्माइश परतिनका तिनका काँटे तोड़े सारी रात कटाई कीकोई ख़ामोश ज़ख़्म लगती हैतुझ को देखा है जो दरिया ने इधर आते हुएशाम से आज सांस भारी हैहर एक ग़म निचोड़ के हर इक बरस जिएज़िंदगी यूँ हुई बसर तन्हाख़ुशबू जैसे लोग मिले अफ़्साने मेंदर्द हल्का है साँस भारी हैवो जो शायर थादिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रहीकुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई कोई नहीं है आने वाला फिर भी कोई आने को हैनील-गगन में तैर रहा है उजला उजला पूरा चाँदउठ के कपड़े बदल घर से बाहर निकल जो हुआ सो हुआरात के बा'द नए दिन की सहर आएगीदिन सलीक़े से उगा रात ठिकाने से रहीये कैसी कश्मकश है ज़िंदगी मेंकुछ भी बचा न कहने को हर बात हो गई "कल रात""वो लड़की""क़ौमी यक-जेहती""इंतिज़ार"दिल गया रौनक़-ए-हयात गईमौत का एक दिन मुअय्यन हैक़फ़स में हूँ गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को जौर से बाज़ आए पर बाज़ आएँ क्या ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता को दूर से मत दिखा कि यूँ आईना देख अपना सा मुँह ले के रह गए कोई उम्मीद बर नहीं आतीइसी खंडर में कहीं कुछ दिए हैं टूटे हुए रात भी नींद भी कहानी भी इक उम्र कट गई है तिरे इंतिज़ार में सुन कर तमाम रात मेरी दास्तान-ए-ग़मबस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में वक़्त-ए-ग़ुरूब आज करामात हो गई अब दौर-ए-आसमाँ है न दौर-ए-हयात है अब अक्सर चुप चुप से रहें हैं यूँही कभू लब खोलें हैं आँखों में जो बात हो गई है रात भी नींद भी कहानी भी "मुंबई, सफलता, स्टारडम""लेकिन प्रोड्यूसर्स ही बेवक़ूफ़ निकले""बड़ी लंबी कहानी है यार""चाँदनी चौक की फ़ैक्टरी और मज़दूर""तुम्हारी औक़ात क्या है पीयूष मिश्रा"ओ रात के मुसाफ़िरमौत ने सारी रात हमारी नब्ज़ टटोलीवहाँ ईद क्या वहाँ दीद क्यारात बे-पर्दा सी लगती है मुझेख़मोशी बस ख़मोशी थी इजाज़त अब हुई हैये चुपके चुपके न थमने वाली हँसी तो देखोइक दिन ख़ुद को अपने पास बिठाया हम नेक्या जाने किस की प्यास बुझाने किधर गईं लाई फिर इक लग़्ज़िश-ए-मस्ताना तेरे शहर में कहीं से लौट के हम लड़खड़ाए हैं क्या क्या लाई फिर इक लग़्ज़िश-ए-मस्ताना तेरे शहर में कहीं से लौट के हम लड़खड़ाए हैं क्या क्या क्या जाने किस की प्यास बुझाने किधर गईं ज़बाँ को तर्जुमान-ए-ग़म बनाऊँ किस तरह 'कैफ़ी' वो सर्द रात जबकि सफ़र कर रहा था मैं मेरे काँधे पे बैठा कोई राम बन-बास से जब लौट के घर में आए तुम परेशान न हो, बाब-ए-करम वा न करो मुद्दतों मैं इक अंधे कुएँ में असीर अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी आया न करो तुम ख़ुदा हो ये अँधेरी रात ये सारी फ़ज़ा सोई हुई मैं ने तन्हा कभी उस को देखा नहीं रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है रात के शायद एक बजे हैं आधी रात की चुप में किस की चाप उभरती हैमुश्किल है कि अब शहर में निकले कोई घर से तेरा घर और मेरा जंगल भीगता है साथ साथ हर्फ़-ए-ताज़ा नई ख़ुशबू में लिखा चाहता है गुलाब हाथ में हो आँख में सितारा हो कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी पूरा दुख और आधा चाँद गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह तेरी ख़ुश्बू का पता करती है मुश्किल है कि अब शहर में निकले कोई घर सेगए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह पूरा दुख और आधा चाँद कुछ तो हवा भी सर्द थी कुछ था तिरा ख़याल भी मुझे मालूम था आँख बोझल है कच्चा सा इक मकाँ कहीं आबादियों से दूर अंदेशों के दरवाज़ों पर आज की शब तो किसी तौर गुज़र जाएगी सुतून-ए-दार पे रखते चलो सरों के चराग़ जला के मिशअल-ए-जाँ हम जुनूँ-सिफ़ात चलेसौ चाँद भी चमकेंगे तो क्या बात बनेगी ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया काबे की है हवस कभी कू-ए-बुताँ की है कौन सा ताइर-ए-गुम-गश्ता उसे याद आया फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैं ग़म से कहीं नजात मिले चैन पाएँ हम ग़ज़ब किया तिरे वअ'दे पे ए'तिबार किया फ़लक देता है जिन को ऐश उन को ग़म भी होते हैंथोड़ा सा अक्स चाँद के पैकर में डाल देजब हमें मस्जिद जाना पड़ा है गर्दिश-ए-अर्ज़-ओ-समावात ने जीने न दिया हाए लोगों की करम-फ़रमाइयाँ तेरा चेहरा सुब्ह का तारा लगता है तुझे कौन जानता था मिरी दोस्ती से पहले थोड़ा सा अक्स चाँद के पैकर में डाल दे हाए लोगों की करम-फ़रमाइयाँ हूँ मैं परवाना मगर शम्अ तो हो रात तो हो तिरी ज़ुल्फ़ों में दिल उलझा हुआ है फिर गई आप की दो दिन में तबीअ'त कैसी ये हमें किसने वर्चस्व की लड़ाई दीमुजाहिद की दास्तान है ख़्वाब मेरेबनने बिगड़ने के रास्ते, सारे बवाल छोड़ चुकेइसी उलझन में उम्र सारी बसर कीरात जैसे जैसे ढलती जा रही हैशिखर पे चढ़के बैठे थे एहतियात केपढ़ लेगा कोई रात की रोई हुई आँखेंज़मीं के सारे मनाज़िर से कट के सोता हूँ रूदाद-ए-जाँ कहें जो ज़रा दम मिले हमें छुप जाता है फिर सूरज जिस वक़्त निकलता है हर एक शाम का मंज़र धुआँ उगलने लगा यूँ मिरे होने को मुझ पर आश्कार उस ने किया शहर में सारे चराग़ों की ज़िया ख़ामोश है नींद के बोझ से पलकों को झपकती हुई आई चलते चलते ये गली बे-जान होती जाएगी बन के साया ही सही सात तो होती होगी ये कार-ए-ज़िंदगी था तो करना पड़ा मुझे जो अब जहान-ए-बरहना का इस्तिआरा हुआ कभी तो बनते हुए और कभी बिगड़ते हुए नींद के बोझ से पलकों को झपकती हुई आईशहर में सारे चराग़ों की ज़िया ख़ामोश हैयूँ मिरे होने को मुझ पर आश्कार उस ने कियाहर एक शाम का मंज़र धुआँ उगलने लगाछुप जाता है फिर सूरज जिस वक़्त निकलता हैरूदाद-ए-जाँ कहें जो ज़रा दम मिले हमेंज़मीं के सारे मनाज़िर से कट के सोता हूँकभी तो बनते हुए और कभी बिगड़ते हुएजो अब जहान-ए-बरहना का इस्तिआरा हुआये कार-ए-ज़िंदगी था तो करना पड़ा मुझेबन के साया ही सही सात तो होती होगीचलते चलते ये गली बे-जान होती जाएगीरात अँधेरी, ख़ाली रस्ता, और रफ़ी के गाने हैंबदन लिए तलाशता फिरू हूँ रात दिन उसेएक ख़्वाहिश मेरी ये भी थी कि दुनिया देखूँ