तमाम रात सितारों से बात रहती थी
तमाम रात सितारों से बात रहती थी
कि सुब्ह होते ही घर से फूल आते थे
वो किस के नक्श उभरते थे तेग़ पर अपनी
वो किस ख़्याल में हम जंग जीत जाते थे
हमे भी क़हत में एक चश्मे-ज़र मयस्सर थी
कोई हथेलियाँ भर-भर के मय पिलाता था
भरा हुआ था समंदर इन्हीं ख़जानों से
निकाल लेते थे जो ख़्वाब रास आता था
वो मेरे साथ रहा करता ख़ुशदिली से बहुत
कि उन दिनों मेरा दुनिया पर हाथ पड़ता था
हमारी जेब भरी रहती दास्तानों से
हमें ख़्याल का जंगल भी साथ पड़ता था
वो सारे दिन का थका ख़्वाबगाह में आता
थपक थपक के सुलाता तो हाथ सो जाते
नसीमे-सुब्ह किसी लहर में जगाती हमें
और उठते उठते हमें दिन के एक हो जाते
सरों से खेंच लिया वक़्त ने वफ़ा का लिहाफ़
वो पर्दे उठ गए जो तायनात रहते थे
बिछड़ गया है वो संगीन मौसमों में कहीं
वो मेरे दिल पर सदा जिसके हाथ रहते थे
वो बू-ए-गुल हमें जिस गुलिस्ताँ में लाई थी
वहाँ भी जा के उसका निशान देख लिया
ये शाख़-ए-वस्ल दुबारा हरी नहीं होती
हवा-ए-हिज्र ने मेरा मकान देख लिया
वो अब्र जिसकी तग-ओ-दौ में जिस्म सूख गए
दुबारा छत पे है और छत पे सीढ़ी जाती है
ठहर ठहर के उस सम्त ऐसे बढ़ रहा हूँ
कि जैसे हामला औरत कदम उठाती है
ये ज़हर बादा-ए-इशरत है और दे मेरे रब
वो फिर चला गया मैं फिर ज़मीन चाटूँगा
मैं फिर से हाथ में तेशा उठाए सोचता हूँ
मैं कोहकन वही ख़ुश-ख़त पहाड़ काटूँगा
बदन की बर्फ़ पिघलने के बाद पूछेंगे
बहुत पता है तहम्मुल के साथ बहते हो
अज़ल के हाथ पे खेंची हुई समय की लकीर
किसी से पहले मिटी है जो मुझसे कहते हो