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GHAZAL

मुझ को वहशत हुई मिरे घर से

मुझ को वहशत हुई मिरे घर से

रात तेरी जुदाई के डर से

तेरी फ़ुर्क़त का हब्स था अंदर

और दम घुट रहा था बाहर से

जिस्म की आग बुझ गई लेकिन

फिर नदामत के अश्क भी बरसे

एक मुद्दत से हैं सफ़र में हम

घर में रह कर भी जैसे बेघर से

बार-हा तेरी जुस्तुजू में हम

तुझ से मिलने के बाद भी तरसे

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मुझ को वहशत हुई मिरे घर से — Azhar Iqbal • ShayariPage