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GHAZAL

सिसकते आब में किस की सदा है

सिसकते आब में किस की सदा है

कोई दरिया की तह में रो रहा है

सवेरे मेरी इन आँखों ने देखा

ख़ुदा चारों तरफ़ बिखरा हुआ है

अँधेरी रात का तन्हा मुसाफ़िर

मिरी पलकों पे अब सहमा खड़ा है

हक़ीक़त सुर्ख़ मछली जानती है

समुंदर कैसा बूढ़ा देवता है

समेटो और सीने में छुपा लो

ये सन्नाटा बहुत फैला हुआ है

पके गेहूँ की ख़ुशबू चीख़ती है

बदन अपना सुनहरा हो चुका है

हमारी शाख़ का नौ-ख़ेज़ पत्ता

हवा के होंट अक्सर चूमता है

मुझे उन नीली आँखों ने बताया

तुम्हारा नाम पानी पर लिखा है

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