वो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है

वो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है

ज़मीन सूरज की उँगलियों से फिसल रही है

जो मुझ को ज़िंदा जला रहे हैं वो बे-ख़बर हैं

कि मेरी ज़ंजीर धीरे धीरे पिघल रही है

मैं क़त्ल तो हो गया तुम्हारी गली में लेकिन

मिरे लहू से तुम्हारी दीवार गल रही है

न जलने पाते थे जिस के चूल्हे भी हर सवेरे

सुना है कल रात से वो बस्ती भी जल रही है

मैं जानता हूँ कि ख़ामुशी में ही मस्लहत है

मगर यही मस्लहत मिरे दिल को खल रही है

कभी तो इंसान ज़िंदगी की करेगा इज़्ज़त

ये एक उम्मीद आज भी दिल में पल रही है