Shayari Page
GHAZAL

वो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है

वो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है

ज़मीन सूरज की उँगलियों से फिसल रही है

जो मुझ को ज़िंदा जला रहे हैं वो बे-ख़बर हैं

कि मेरी ज़ंजीर धीरे धीरे पिघल रही है

मैं क़त्ल तो हो गया तुम्हारी गली में लेकिन

मिरे लहू से तुम्हारी दीवार गल रही है

न जलने पाते थे जिस के चूल्हे भी हर सवेरे

सुना है कल रात से वो बस्ती भी जल रही है

मैं जानता हूँ कि ख़ामुशी में ही मस्लहत है

मगर यही मस्लहत मिरे दिल को खल रही है

कभी तो इंसान ज़िंदगी की करेगा इज़्ज़त

ये एक उम्मीद आज भी दिल में पल रही है

Comments

Loading comments…
वो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है — Javed Akhtar • ShayariPage