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GHAZAL

ज़िंदगी को ज़ख़्म की लज़्ज़त से मत महरूम कर

ज़िंदगी को ज़ख़्म की लज़्ज़त से मत महरूम कर

रास्ते के पत्थरों से ख़ैरियत मा'लूम कर

टूट कर बिखरी हुई तलवार के टुकड़े समेट

और अपने हार जाने का सबब मा'लूम कर

जागती आँखों के ख़्वाबों को ग़ज़ल का नाम दे

रात भर की करवटों का ज़ाइक़ा मंज़ूम कर

शाम तक लौट आऊँगा हाथों का ख़ाली-पन लिए

आज फिर निकला हूँ मैं घर से हथेली चूम कर

मत सिखा लहजे को अपनी बर्छियों के पैंतरे

ज़िंदा रहना है तो लहजे को ज़रा मा'सूम कर

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