तुम हो तो क़रीब और क़रीब-ए-रग-ए-जाँ हो
तुम हो तो क़रीब और क़रीब-ए-रग-ए-जाँ हो
फिर क्यों ये मुझे पूछना पड़ता है कहाँ हो
मुमकिन है कि इस बाग़ में दम घुटने का बायस
ख़ुश्बू जिसे कहते हैं वो फूलों का धुँआ हो
तुमसे तो पढ़ी जाती नही अश्क़ों की सतरें
जैसे ये किसी और जहाँ की जुबां हो
इस तरह सरे-फ़र्श-ए-'अज़ा बैठी है 'ताबिश'
जैसे ये उदासी किसी मक़तूल की माँ हो
माँ थी तो मुझे रात नही पड़ती थी बाहर
अब कोई नही पूछता 'अब्बास' कहाँ हो