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GHAZAL

ज़मीं के सारे मनाज़िर से कट के सोता हूँ

ज़मीं के सारे मनाज़िर से कट के सोता हूँ

मैं आसमाँ के सफ़र से पलट के सोता हूँ

मैं जम्अ' करता हूँ शब के सियाही क़तरों को

ब-वक़्त-ए-सुब्ह फिर उन को पलट के सोता हूँ

तलाश धूप में करता हूँ सारा दिन ख़ुद को

तमाम-रात सितारों में बट के सोता हूँ

कहाँ सुकूँ कि शब-ओ-रोज़ घूमना उस का

ज़रा ज़मीन के मेहवर से हट के सोता हूँ

तिरे बदन की ख़लाओं में आँख खुलती है

हवा के जिस्म से जब जब लिपट के सोता हूँ

मैं जाग जाग के रातें गुज़ारने वाला

इक ऐसी रात भी आती है डट के सोता हूँ

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