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NAZM

इक ज़रा सोचने दो

इक ज़रा सोचने दो

इस ख़याबाँ में

जो इस लहज़ा बयाबाँ भी नहीं

कौन सी शाख़ में फूल आए थे सब से पहले

कौन बे-रंग हुई रंज-ओ-तअब से पहले

और अब से पहले

किस घड़ी कौन से मौसम में यहाँ

ख़ून का क़हत पड़ा

गुल की शह-रग पे कड़ा

वक़्त पड़ा

सोचने दो

सोचने दो

इक ज़रा सोचने दो

ये भरा शहर जो अब वादी-ए-वीराँ भी नहीं

इस में किस वक़्त कहाँ

आग लगी थी पहले

इस के सफ़-बस्ता दरीचों में से किस में अव्वल

ज़ह हुई सुर्ख़ शुआओं की कमाँ

किस जगह जोत जगी थी पहले

सोचने दो

हम से उस देस का तुम नाम ओ निशाँ पूछते हो

जिस की तारीख़ न जुग़राफ़िया अब याद आए

और याद आए तो महबू-ए-गुज़िश्ता याद आए

रू-ब-रू आने से जी घबराए

हाँ मगर जैसे कोई

ऐसे महबूब या महबूबा का दिल रखने को

आ निकलता है कभी रात बिताने के लिए

हम अब उस उम्र को आ पहुँचे हैं जब हम भी यूँही

दिल से मिल आते हैं बस रस्म निभाने के लिए

दिल की क्या पूछते हो

सोचने दो

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इक ज़रा सोचने दो — Faiz Ahmad Faiz • ShayariPage