एक ख़्वाहिश मेरी ये भी थी कि दुनिया देखूँ

एक ख़्वाहिश मेरी ये भी थी कि दुनिया देखूँ

तू मगर साथ नहीं है तो भला क्या देखूँ

तेरा लिक्खा जो पढ़ूँ तो तेरी आवाज़ सुनूँ

तेरी आवाज़ सुनूँ तो तेरा चेहरा देखूँ

रात छत पर मैं सितारों से गढ़ूँ इक पैकर

फिर वही नक़्श खलाओं में उभरता देखूँ

ठीक थी उनसे मुलाकात मगर ठीक ही थी

फ़िल्म इतनी नहीं अच्छी कि दोबारा देखूँ