तुझ को देखा है जो दरिया ने इधर आते हुए

तुझ को देखा है जो दरिया ने इधर आते हुए

कुछ भँवर डूब गए पानी में चकराते हुए

हम ने तो रात को दाँतों से पकड़ कर रक्खा

छीना-झपटी में उफ़ुक़ खुलता गया जाते हुए

मैं न हूँगा तो ख़िज़ाँ कैसे कटेगी तेरी

शोख़ पत्ते ने कहा शाख़ से मुरझाते हुए

हसरतें अपनी बिलक्तीं न यतीमों की तरह

हम को आवाज़ ही दे लेते ज़रा जाते हुए

सी लिए होंट वो पाकीज़ा निगाहें सुन कर

मैली हो जाती है आवाज़ भी दोहराते हुए