Shayari Page
GHAZAL

सारी दौलत तिरे क़दमों में पड़ी लगती है

सारी दौलत तिरे क़दमों में पड़ी लगती है

तू जहाँ होता है क़िस्मत भी गड़ी लगती है

ऐसे रोया था बिछड़ते हुए वो शख़्स कभी

जैसे सावन के महीने में झड़ी लगती है

हम भी अपने को बदल डालेंगे रफ़्ता रफ़्ता

अभी दुनिया हमें जन्नत से बड़ी लगती है

ख़ुशनुमा लगते हैं दिल पर तिरे ज़ख़्मों के निशाँ

बीच दीवार में जिस तरह घड़ी लगती है

तू मिरे साथ अगर है तो अंधेरा कैसा

रात ख़ुद चाँद सितारों से जड़ी लगती है

मैं रहूँ या न रहूँ नाम रहेगा मेरा

ज़िंदगी उम्र में कुछ मुझ से बड़ी लगती है

Comments

Loading comments…