शहर में सारे चराग़ों की ज़िया ख़ामोश है

शहर में सारे चराग़ों की ज़िया ख़ामोश है

तीरगी हर सम्त फैला कर हवा ख़ामोश है

सुब्ह को फिर शोर के हम-राह चलना है उसे

रात में यूँ दिल धड़कने की सदा ख़ामोश है

कैसा सन्नाटा था जिस में लफ़्ज़-ए-कुन कहने के ब'अद

गुम्बद-ए-अफ़्लाक में अब तक ख़ुदा ख़ामोश है

कुछ बताता ही नहीं गुज़री है क्या परदेस में

अपने घर को लौटता एक क़ाफ़िला ख़ामोश है

उठ रही है मेरी मिट्टी से सदा-ए-अल-अतश

ख़ाली मश्कीज़ा लिए अपना घटा ख़ामोश है