Shayari Page
GHAZAL

हर एक शाम का मंज़र धुआँ उगलने लगा

हर एक शाम का मंज़र धुआँ उगलने लगा

वो देखो दूर कहीं आसमाँ पिघलने लगा

तो क्या हुआ जो मयस्सर कोई लिबास नहीं

पहन के धूप मैं अपने बदन पे चलने लगा

मैं पिछली रात तो बेचैन हो गया इतना

कि उस के बाद ये दिल ख़ुद-ब-ख़ुद बहलने लगा

अजीब ख़्वाब थे शीशे की किर्चियों की तरह

जब उन को देखा तो आँखों से ख़ूँ निकलने लगा

बना के दाएरा यादें सिमट के बैठ गईं

ब-वक़्त-ए-शाम जो दिल का अलाव जलने लगा

Comments

Loading comments…