ख़ुद पर जब इश्क़ की वहशत को मुसल्लत करूँगा

ख़ुद पर जब इश्क़ की वहशत को मुसल्लत करूँगा

इस कदर ख़ाक उड़ाऊँगा कयामत करूँगा


हिज्र की रात मेरी जान को आई हुई है

बच गया तो मैं मोहब्बत की मज़म्मत करूँगा


अब तेरे राज़ सँभाले नहीं जाते मुझसे

मैं किसी रोज़ अमानत में ख़यानत करूँगा


लयलातुल क़दर गुज़रेंगे किसी जंगल में

नूर बरसेगा दरख़्तों की इमामत करूँगा