GHAZAL•
शिखर पे चढ़के बैठे थे एहतियात के
By Murli Dhakad
शिखर पे चढ़के बैठे थे एहतियात के
मौसम सभी गुजर गए बरसात के
हम रोशनी के तलबगार लोग हैं
हम मुसाफिर हैं स्याह रात के
नहीं काँटो को भी ये मंजूर
फूल कोई तोड़ा जाए बिना बात के
देखिए महरूम होते चले गए हैं
मेरे दोस्त सभी मेरी ज़ात के
नहीं है ग़म-ए-हयात से ये जख़्म
ये जख़्म है खुद अपने जज़्बात के