"मुंबई, सफलता, स्टारडम"
"मुंबई, सफलता, स्टारडम"
वो चकाचौंध है यार कहीं तुम खो मत जाना...!
वो बिजली की इक कौंध यार
वो बादल की एक ग़रज़ यार
वो चमक मारती... गड़-गड़ करती
आज रवाँ
कल मुर्दा है...
और आज जवाँ
कल बूढ़ी है...
और आज हसीं
कल बदसूरत
और आज पास
कल दूरी है...
वो रेल की छुक-छुक जैसी है
जो दूर-दूर को जाते-जाते
बहुत दूर खो जाती है...
और धुन उसकी बस आस-पास की
पटरी पे रो जाती है...
वो कोहरे वाली रात को जाते
राहगरी के जूतों की
वैसी वाली-सी खट्-खट् है
जो दरवाज़े के पास गुज़रती
चौंकाती झकझोर मारती...
भरी नींद की तोड़ मारती
कानों से टकराती है...
और फिर इकदम
उस धुप्प अँधेरे
के अंदर घुस जाती है...!
वो बूढ़े चौकीदार की सूजी
थकन भरी आँखों में आई
नींद की वैसी झपकी है...
जो रात में पल-पल आती है...
पर मालिक की गाड़ी के तीखे
हॉर्न की चीख़ी पौं-पौं में
इक झटके में भग जाती है...!
वो भरी जवानी की बेवा की
आँख में बैठी हसरत है...
जो बाल खोल
उजली साड़ी में...
भरी महकती काया ले
सूनापन तकती जाती है...
जो कसक मारती... भरे गले में
फँसती-दबती मुश्किल से
बस इक पल को ही आ पाती है...
और दूजे पल ही
टूट पड़ी चूड़ी की छन्नक छन्न-छन्न से
बिखर-बिखर को जाती है...!
...खोज में जिसकी जाते हो
उसको इक पल... थोड़ा टटोल के
हाथ घुमा के... ज़रा मोड़ के
पैंट के पिछले पॉकेट में भी
छूने की कोशिश करना...!
ऐसा ना हो कि खोज तुम्हारे अंदर ही बैठी हो और बस...
किसी वजह से लुकी-छिपी हो...!
खोजे जाने के डर से शायद
तुमसे ही कुछ डरी-डरी हो...!
गर आँख खोल के देखोगे तो दिख जाएगी...
पर अँधे हो के देख लिया
तो याद हमेशा रखना ये
कि पास तुम्हारे आज अगर
तो कल तक के आते-आते
वो धुँधली भी हो सकती है
और परसों तक तो पक्का ही
हाथों से भी खो सकती है...
वो चकाचौंध है यार
कहीं तुम खो मत जाना...