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GHAZAL

इसी उलझन में उम्र सारी बसर की

इसी उलझन में उम्र सारी बसर की

ये छाया सूरज की है या शजर की

एक दिन मैं अपने घर महमान हुआ

ताक पर रख दी आवारगी ज़िन्दगी भर की

मैंने हादसों से अपनी झोली भर ली

जैसे कमाई हो किसी लंबे सफर की

कोई इतना मुतमईन कैसे हो सकता है

जाम भी ना लिया ज़िन्दगी भी बसर की

दिन तो कयामत था गुज़ारा नहीं गया

रात तो ज़िन्दगी थी सो बसर की

हां फसाना तो मैं भूल गया लेकिन

कुछ गलियां याद है तेरे शहर की

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इसी उलझन में उम्र सारी बसर की — Murli Dhakad • ShayariPage