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GHAZAL

गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह

गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह

दिल पे उतरेंगे वही ख़्वाब अज़ाबों की तरह

राख के ढेर पे अब रात बसर करनी है

जल चुके हैं मेरे ख़ेमे मेरे ख़्वाबों की तरह

साअत-ए-दीद कि आरिज़ हैं गुलाबी अब तक

अव्वलीं लम्हों के गुलनार हिजाबों की तरह

वो समुंदर है तो फिर रूह को शादाब करे

तिश्नगी क्यूँ मुझे देता है सराबों की तरह

ग़ैर-मुमकिन है तेरे घर के गुलाबों का शुमार

मेरे रिसते हुए ज़ख़्मों के हिसाबों की तरह

याद तो होंगी वो बातें तुझे अब भी लेकिन

शेल्फ़ में रक्खी हुई बंद किताबों की तरह

कौन जाने कि नए साल में तू किस को पढ़े

तेरा मेआ'र बदलता है निसाबों की तरह

शोख़ हो जाती है अब भी तेरी आँखों की चमक

गाहे गाहे तेरे दिलचस्प जवाबों की तरह

हिज्र की शब मेरी तन्हाई पे दस्तक देगी

तेरी ख़ुश-बू मेरे खोए हुए ख़्वाबों की तरह

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गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह — Parveen Shakir • ShayariPage