अंदेशों के दरवाज़ों पर

अंदेशों के दरवाज़ों पर

कोई निशान लगाता है

और रातों रात तमाम घरों पर

वही सियाही फिर जाती है


दुख का शब ख़ूँ रोज़ अधूरा रह जाता है

और शनाख़्त का लम्हा बीतता जाता है

मैं और मेरा शहर-ए-मोहब्बत

तारीकी की चादर ओढ़े

रौशनी की आहट पर कान लगाए कब से बैठे हैं

घोड़ों की टापों को सुनते रहते हैं

हद-ए-समाअत से आगे जाने वाली आवाज़ों के रेशम से

अपनी रू-ए-सियाह पे तारे काढ़ते रहते हैं

अँगुश्ता ने इक इक कर के छलनी होने को आए

अब बारी अंगुश्त-ए-शहादत की आने वाली है

सुब्ह से पहले वो कटने से बच जाए तो!