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GHAZAL

रुके रुके से क़दम रुक के बार बार चले

रुके रुके से क़दम रुक के बार बार चले

क़रार दे के तिरे दर से बे-क़रार चले

उठाए फिरते थे एहसान जिस्म का जाँ पर

चले जहाँ से तो ये पैरहन उतार चले

न जाने कौन सी मिट्टी वतन की मिट्टी थी

नज़र में धूल जिगर में लिए ग़ुबार चले

सहर न आई कई बार नींद से जागे

थी रात रात की ये ज़िंदगी गुज़ार चले

मिली है शम्अ' से ये रस्म-ए-आशिक़ी हम को

गुनाह हाथ पे ले कर गुनाहगार चले

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