जो बात कहते डरते हैं सब तू वो बात लिख

जो बात कहते डरते हैं सब तू वो बात लिख

इतनी अँधेरी थी न कभी पहले रात लिख


जिनसे क़सीदे लिखे थे वो फेंक दे क़लम

फिर ख़ून-ए-दिल से सच्चे क़लम की सिफ़ात लिख


जो रोज़नामों में कहीं पाती नहीं जगह

जो रोज़ हर जगह की है वो वारदात लिख


जितने भी तंग दाएरे हैं सारे तोड़ दे

अब आ खुली फ़िज़ाओं में अब काएनात लिख


जो वाक़ियात हो गए उनका तो ज़िक्र है

लेकिन जो होने चाहिए वो वाक़ियात लिख


इस बाग़ में जो देखनी है तुझको फिर बहार

तू डाल-डाल से सदा तू पात-पात लिख