जितने अपने थे सब पराए थे
जितने अपने थे सब पराए थे
हम हवा को गले लगाए थे

@rahat-indori
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
Followers
0
Content
143
Likes
0
जितने अपने थे सब पराए थे
हम हवा को गले लगाए थे
साथ मंज़िल थी मगर ख़ौफ़-ओ-ख़तर ऐसा था
उम्र-भर चलते रहे लोग सफ़र ऐसा था
मेरे हुजरे में नहीं और कहीं पर रख दो
आसमाँ लाए हो ले आओ ज़मीं पर रख दो
चेहरों की धूप आँखों की गहराई ले गया
आईना सारे शहर की बीनाई ले गया
मेरे कारोबार में सब ने बड़ी इमदाद की
दाद लोगों की गला अपना ग़ज़ल उस्ताद की
शाम ने जब पलकों पे आतिश-दान लिया
कुछ यादों ने चुटकी में लोबान लिया
जो ये हर-सू फ़लक मंज़र खड़े हैं
न जाने किस के पैरों पर खड़े हैं
सब की पगड़ी को हवाओं में उछाला जाए
सोचता हूँ कोई अख़बार निकाला जाए
ये ख़ाक-ज़ादे जो रहते हैं बे-ज़बान पड़े
इशारा कर दें तो सूरज ज़मीं पे आन पड़े
ज़िंदगी को ज़ख़्म की लज़्ज़त से मत महरूम कर
रास्ते के पत्थरों से ख़ैरियत मा'लूम कर
मेरे अश्कों ने कई आँखों में जल-थल कर दिया
एक पागल ने बहुत लोगों को पागल कर दिया
काली रातों को भी रंगीन कहा है मैं ने
तेरी हर बात पे आमीन कहा है मैं ने
शजर हैं अब समर-आसार मेरे
चले आते हैं दावेदार मेरे
शहर क्या देखें कि हर मंज़र में जाले पड़ गए
ऐसी गर्मी है कि पीले फूल काले पड़ गए
सिर्फ़ सच और झूट की मीज़ान में रक्खे रहे
हम बहादुर थे मगर मैदान में रक्खे रहे
नए सफ़र का जो एलान भी नहीं होता
तो ज़िंदा रहने का अरमान भी नहीं होता
बैर दुनिया से क़बीले से लड़ाई लेते
एक सच के लिए किस किस से बुराई लेते
जो मंसबों के पुजारी पहन के आते हैं
कुलाह तौक़ से भारी पहन के आते हैं
उठी निगाह तो अपने ही रू-ब-रू हम थे
ज़मीन आईना-ख़ाना थी चार-सू हम थे
हम ने ख़ुद अपनी रहनुमाई की
और शोहरत हुई ख़ुदाई की