साथ मंज़िल थी मगर ख़ौफ़-ओ-ख़तर ऐसा था

साथ मंज़िल थी मगर ख़ौफ़-ओ-ख़तर ऐसा था

उम्र-भर चलते रहे लोग सफ़र ऐसा था


जब वो आए तो मैं ख़ुश भी हुआ शर्मिंदा भी

मेरी तक़दीर थी ऐसी मिरा घर ऐसा था


हिफ़्ज़ थीं मुझ को भी चेहरों की किताबें क्या क्या

दिल शिकस्ता था मगर तेज़ नज़र ऐसा था


आग ओढ़े था मगर बाँट रहा था साया

धूप के शहर में इक तन्हा शजर ऐसा था


लोग ख़ुद अपने चराग़ों को बुझा कर सोए

शहर में तेज़ हवाओं का असर ऐसा था