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GHAZAL

जितने अपने थे सब पराए थे

जितने अपने थे सब पराए थे

हम हवा को गले लगाए थे

जितनी क़समें थी सब थीं शर्मिंदा

जितने वादे थे सर झुकाए थे

जितने आँसू थे सब थे बेगाने

जितने मेहमाँ थे बिन बुलाए थे

सब किताबें पढ़ी पढ़ाई थीं

सारे क़िस्से सुने सुनाए थे

एक बंजर ज़मीं के सीने में

मैंने कुछ आसमाँ उगाए थे

वरना औक़ात क्या थी सायों की

धूप ने हौसले बढ़ाए थे

सिर्फ़ दो घूँट प्यास की ख़ातिर

उम्र भर धूप में नहाए थे

हाशिए पर खड़े हुए हैं हम

हम ने ख़ुद हाशिए बनाए थे

मैं अकेला उदास बैठा था

शाम ने क़हक़हे लगाए थे

है ग़लत उस को बेवफ़ा कहना

हम कहाँ के धुले धुलाए थे

आज काँटों भरा मुक़द्दर है

हम ने गुल भी बहुत खिलाए थे

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जितने अपने थे सब पराए थे — Rahat Indori • ShayariPage