जितने अपने थे सब पराए थे
जितने अपने थे सब पराए थे
हम हवा को गले लगाए थे
जितनी क़समें थी सब थीं शर्मिंदा
जितने वादे थे सर झुकाए थे
जितने आँसू थे सब थे बेगाने
जितने मेहमाँ थे बिन बुलाए थे
सब किताबें पढ़ी पढ़ाई थीं
सारे क़िस्से सुने सुनाए थे
एक बंजर ज़मीं के सीने में
मैंने कुछ आसमाँ उगाए थे
वरना औक़ात क्या थी सायों की
धूप ने हौसले बढ़ाए थे
सिर्फ़ दो घूँट प्यास की ख़ातिर
उम्र भर धूप में नहाए थे
हाशिए पर खड़े हुए हैं हम
हम ने ख़ुद हाशिए बनाए थे
मैं अकेला उदास बैठा था
शाम ने क़हक़हे लगाए थे
है ग़लत उस को बेवफ़ा कहना
हम कहाँ के धुले धुलाए थे
आज काँटों भरा मुक़द्दर है
हम ने गुल भी बहुत खिलाए थे