बच्चों की तरह वक़्त बिताने में लगे हैं
बच्चों की तरह वक़्त बिताने में लगे हैं
दीवार पे हम फूल बनाने में लगे हैं

@abbas-tabish
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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बच्चों की तरह वक़्त बिताने में लगे हैं
दीवार पे हम फूल बनाने में लगे हैं
क्या ज़रूरी है मुहब्बत में तमाशा होना
जिससे मिलना ही नहीं उससे जुदा क्या होना
जुदाई का ज़माना यूँ ठिकाने लग गया था
बिछड़ कर उससे मैं लिखने लिखाने लग गया था
देख दीवारों पे ग़हरी झुर्रियाँ बारिश के बाद
और बूढ़ा हो गया कच्चा मकाँ बारिश के बाद
तुम हो तो क़रीब और क़रीब-ए-रग-ए-जाँ हो
फिर क्यों ये मुझे पूछना पड़ता है कहाँ हो
दमे-सुख़न ही तबीयत लहू लहू की जाए
कोई तो हो कि तिरी जिससे गुफ़्तगू की जाए
न पूछ कितने है बेताब देखने के लिए
हम एक साथ कईं ख़्वाब देखने के लिए
तू समझता है तेरा हिज्र गवारा कर के
बैठ जाएँगे मोहब्बत से किनारा कर के
अब नज़रअंदाज़ करने की भी आसानी नही
कौनसी सी जा है जहाँ मैं ज़ेर-ए-निगरानी नही
ये बता यौम-ए-मोहब्बत का समाँ है कि नहीं
शहर का शहर गुलाबों की दुकाँ है कि नहीं
टूटते इश्क़ में कुछ हाथ बँटाते जाते
सारा मलबा मेरे ऊपर न गिराते जाते
कोई टकरा के सुबुक-सर भी तो हो सकता है
मेरी ता'मीर में पत्थर भी तो हो सकता है
शेर लिखने का फायदा क्या है
उस से कहने को अब रहा क्या है
मेरी तन्हाई बढ़ाते हैं चले जाते हैं
हंस तालाब पे आते हैं चले जाते हैं
पानी आँख में भर कर लाया जा सकता है
अब भी जलता शहर बचाया जा सकता है
दश्त में प्यास बुझाते हुए मर जाते हैं
हम परिंदे कहीं जाते हुए मर जाते हैं