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GHAZAL

दमे-सुख़न ही तबीयत लहू लहू की जाए

दमे-सुख़न ही तबीयत लहू लहू की जाए

कोई तो हो कि तिरी जिससे गुफ़्तगू की जाए

ये नुक़्ता कटते शजर ने मुझे किया तालीम

कि दुख तो मिलते हैं गर ख़्वाहिश-ए-नमू की जाए

क़सीदा-कार-ए-अज़ल तुझको एतराज़ तो नइँ

कहीं कहीं से अगर ज़िन्दगी रफ़ू की जाए

मैं ये भी चाहता हूँ इश्क़ का न हो इल्ज़ाम

मैं ये भी चाहता हूँ तेरी आरज़ू की जाए

मुहब्बतों में तो शिजरे कभी नहीं मज़्कूर

तू चाहता है कि मसलक पे गुफ़्तगू की जाए

मिरी तरह से उजड़कर बसाएँ शहरे-सुखन

जो नक़्ल करनी है मेरी तो हू-ब-हू की जाए

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