ख़ून रुलवाएगी ये जंगल-परस्ती एक दिन
ख़ून रुलवाएगी ये जंगल-परस्ती एक दिन
सब चले जाएँगे ख़ाली कर के बस्ती एक दिन

@munawwar-rana
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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ख़ून रुलवाएगी ये जंगल-परस्ती एक दिन
सब चले जाएँगे ख़ाली कर के बस्ती एक दिन
महफ़िल में आज मर्सिया-ख़्वानी ही क्यूँ न हो
आँखों से बहने दीजिए पानी ही क्यूँ न हो
फिर से बदल के मिट्टी की सूरत करो मुझे
इज़्ज़त के साथ दुनिया से रुख़्सत करो मुझे
दरिया-दिली से अब्र-ए-करम भी नहीं मिला
लेकिन मुझे नसीब से कम भी नहीं मिला
सहरा-पसंद हो के सिमटने लगा हूँ मैं
अंदर से लग रहा है कि बटने लगा हूँ मैं
मसर्रतों के ख़ज़ाने ही कम निकलते हैं
किसी भी सीने को खोलो तो ग़म निकलते हैं
ये बुत जो हम ने दोबारा बना के रक्खा है
इसी ने हम को तमाशा बना के रक्खा है
पैरों को मिरे दीदा-ए-तर बाँधे हुए है
ज़ंजीर की सूरत मुझे घर बाँधे हुए है
छाँव मिल जाए तो कम दाम में बिक जाती है
अब थकन थोड़े से आराम में बिक जाती है
सहरा पे बुरा वक़्त मिरे यार पड़ा है
दीवाना कई रोज़ से बीमार पड़ा है
किसी ग़रीब की बरसों की आरज़ू हो जाऊँ
मैं इस सुरंग से निकलूँ तू आब-जू हो जाऊँ
मैं इस से पहले कि बिखरूँ इधर उधर हो जाऊँ
मुझे सँभाल ले मुमकिन है दर-ब-दर हो जाऊँ
ये हिज्र का रस्ता है ढलानें नहीं होतीं
सहरा में चराग़ों की दुकानें नहीं होतीं
वो बिछड़ कर भी कहाँ मुझ से जुदा होता है
रेत पर ओस से इक नाम लिखा होता है
सारी दौलत तिरे क़दमों में पड़ी लगती है
तू जहाँ होता है क़िस्मत भी गड़ी लगती है
अना हवस की दुकानों में आ के बैठ गई
अजीब मैना है शिकरों में आ के बैठ गई
ये दरवेशों की बस्ती है यहाँ ऐसा नहीं होगा
लिबास-ए-ज़िंदगी फट जाएगा मैला नहीं होगा
ख़ुद अपने ही हाथों का लिखा काट रहा हूँ
ले देख ले दुनिया मैं पता काट रहा हूँ
काले कपड़े नहीं पहने हैं तो इतना कर ले
इक ज़रा देर को कमरे में अँधेरा कर ले
मुझ को गहराई में मिट्टी की उतर जाना है
ज़िंदगी बाँध ले सामान-ए-सफ़र जाना है