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GHAZAL

ख़ून रुलवाएगी ये जंगल-परस्ती एक दिन

ख़ून रुलवाएगी ये जंगल-परस्ती एक दिन

सब चले जाएँगे ख़ाली कर के बस्ती एक दिन

चूसता रहता है रस भौंरा अभी तक देख लो

फूल ने भूले से की थी सरपरस्ती एक दिन

देने वाले ने तबीअ'त क्या अजब दी है उसे

एक दिन ख़ाना-बदोशी घर-गृहस्ती एक दिन

कैसे कैसे लोग दस्तारों के मालिक हो गए

बिक रही थी शहर में थोड़ी सी सस्ती एक दिन

तुम को ऐ वीरानियों शायद नहीं मा'लूम है

हम बनाएँगे इसी सहरा को बस्ती एक दिन

रोज़-ओ-शब हम को भी समझाती है मिट्टी क़ब्र की

ख़ाक में मिल जाएगी तेरी भी हस्ती एक दिन

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ख़ून रुलवाएगी ये जंगल-परस्ती एक दिन — Munawwar Rana • ShayariPage