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GHAZAL

ये बुत जो हम ने दोबारा बना के रक्खा है

ये बुत जो हम ने दोबारा बना के रक्खा है

इसी ने हम को तमाशा बना के रक्खा है

वो किस तरह हमें इनआ'म से नवाज़ेगा

वो जिस ने हाथों को कासा बना के रक्खा है

यहाँ पे कोई बचाने तुम्हें न आएगा

समुंदरों ने जज़ीरा बना के रक्खा है

तमाम उम्र का हासिल है ये हुनर मेरा

कि मैं ने शीशे को हीरा बना के रक्खा है

किसे किसे अभी सज्दा-गुज़ार होना है

अमीर-ए-शहर ने खाता बना के रक्खा है

मैं बच गया तो यक़ीनन ये मो'जिज़ा होगा

सभी ने मुझ को निशाना बना के रक्खा है

कोई बता दे ये सूरज को जा के हम ने भी

शजर को धूप में छाता बना के रक्खा है

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ये बुत जो हम ने दोबारा बना के रक्खा है — Munawwar Rana • ShayariPage