ख़ामुशी कब चीख़ बन जाए किसे मालूम है
ख़ामुशी कब चीख़ बन जाए किसे मालूम है
ज़ुल्म कर लो जब तलक ये बे-ज़बानी और है

@munawwar-rana
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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ख़ामुशी कब चीख़ बन जाए किसे मालूम है
ज़ुल्म कर लो जब तलक ये बे-ज़बानी और है
मैं इसी मिट्टी से उट्ठा था बगूले की तरह
और फिर इक दिन इसी मिट्टी में मिट्टी मिल गई
तमाम जिस्म को आँखें बना के राह तको
तमाम खेल मुहब्बत में इंतज़ार का है
वह चाहे मजनूँ हो, फ़रहाद हो कि राँझा हो
हर एक शख़्स मेरा हम सबक़ निकलता है
मैंने कल शब चाहतों की सब किताबें फाड़ दीं
सिर्फ़ इक काग़ज़ पे लिक्खा लफ़्ज़-ए-माँ रहने दिया
ये ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता
मैं जब तक घर न लौटूँ मेरी माँ सज्दे में रहती है
बर्बाद कर दिया हमें परदेस ने मगर
माँ सब से कह रही है कि बेटा मज़े में है
तेरे दामन में सितारे हैं तो होंगे ऐ फ़लक
मुझ को अपनी माँ की मैली ओढ़नी अच्छी लगी
कल अपने-आप को देखा था माँ की आँखों में
ये आईना हमें बूढ़ा नहीं बताता है
जब भी कश्ती मिरी सैलाब में आ जाती है
माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है
मोहब्बत एक पाकीज़ा अमल है इस लिए शायद
सिमट कर शर्म सारी एक बोसे में चली आई
हमारे कुछ गुनाहों की सज़ा भी साथ चलती है
हम अब तन्हा नहीं चलते दवा भी साथ चलती है
किसी के ज़ख़्म पर चाहत से पट्टी कौन बाँधेगा
अगर बहनें नहीं होंगी तो राखी कौन बाँधेगा
ये सोच के माँ बाप की ख़िदमत में लगा हूँ
इस पेड़ का साया मिरे बच्चों को मिलेगा
चलती फिरती हुई आँखों से अज़ाँ देखी है
मैं ने जन्नत तो नहीं देखी है माँ देखी है
सगी बहनों का जो रिश्ता रिश्ता है उर्दू और हिन्दी में
कहीं दुनिया की दो ज़िंदा ज़बानों में नहीं मिलता
इतनी तवक़्क़ुआत ज़माने को हमसे है
उतनी तो उम्र भी नहीं लाए लिखा के हम
अभी ज़िंदा है माँ मेरी मुझे कुछ भी नहीं होगा
मैं घर से जब निकलता हूँ दुआ भी साथ चलती है
जहाँ से जी न लगे तुम वहीं बिछड़ जाना
मगर ख़ुदा के लिए बेवफ़ाई न करना
लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू मे ग़ज़ल कहता हूँ हिंदी मुस्कुराती है