किसी ग़रीब की बरसों की आरज़ू हो जाऊँ

किसी ग़रीब की बरसों की आरज़ू हो जाऊँ

मैं इस सुरंग से निकलूँ तू आब-जू हो जाऊँ

बड़ा हसीन तक़द्दुस है उस के चेहरे पर

मैं उस की आँखों में झाँकूँ तो बा-वज़ू हो जाऊँ

मुझे पता तो चले मुझ में ऐब हैं क्या क्या

वो आइना है तो मैं उस के रू-ब-रू हो जाऊँ

किसी तरह भी ये वीरानियाँ हों ख़त्म मिरी

शराब-ख़ाने के अंदर की हाव-हू जाऊँ

मिरी हथेली पे होंटों से ऐसी मोहर लगा

कि उम्र-भर के लिए मैं भी सुर्ख़-रू हो जाऊँ

कमी ज़रा सी भी मुझ में न कोई रह जाए

अगर मैं ज़ख़्म की सूरत हूँ तो रफ़ू हो जाऊँ

नए मिज़ाज के शहरों में जी नहीं लगता

पुराने वक़्तों का फिर से मैं लखनऊ हो जाऊँ