सामने तेरे हूँ घबराया हुआ
सामने तेरे हूँ घबराया हुआ
बे-ज़बाँ होने पर शरमाया हुआ

@shariq-kaifi
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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सामने तेरे हूँ घबराया हुआ
बे-ज़बाँ होने पर शरमाया हुआ
कौन कहे मा'सूम हमारा बचपन था
खेल में भी तो आधा आधा आँगन था
लोग सह लेते थे हँस कर कभी बे-ज़ारी भी
अब तो मश्कूक हुई अपनी मिलन-सारी भी
कुछ क़दम और मुझे जिस्म को ढोना है यहाँ
साथ लाया हूँ उसी को जिसे खोना है यहाँ
बे-तकल्लुफ़ मिरा हैजान बनाता है मुझे
सामने तेरे कहाँ बोलना आता है मुझे
बरसों जुनूँ सहरा सहरा भटकाता है
घर में रहना यूँही नहीं आ जाता है
अजब शिकस्त का एहसास दिल पे छाया था
किसी ने मुझ को निशाना नहीं बनाया था
निगाह नीची हुई है मेरी
ये टूटने की घड़ी है मेरी
दिलों पर नक़्श होना चाहता हूँ
मुकम्मल मौत से घबरा रहा हूँ
पहली बार वो ख़त लिक्खा था
जिस का जवाब भी आ सकता था
कहाँ सोचा था मैं ने बज़्म-आराई से पहले
ये मेरी आख़िरी महफ़िल है तन्हाई से पहले
भीड़ में जब तक रहते हैं जोशीले हैं
अलग अलग हम लोग बहुत शर्मीले हैं
हैं अब इस फ़िक्र में डूबे हुए हम
उसे कैसे लगे रोते हुए हम
यूँ भी सहरा से हम को रग़बत है
बस यही बे-घरों की इज़्ज़त है
कम से कम दुनिया से इतना मिरा रिश्ता हो जाए
कोई मेरा भी बुरा चाहने वाला हो जाए
नहीं मैं हौसला तो कर रहा था
ज़रा तेरे सुकूँ से डर रहा था
सियाने थे मगर इतने नहीं हम
ख़मोशी की ज़बाँ समझे नहीं हम
एक मुद्दत हुई घर से निकले हुए
अपने माहौल में ख़ुद को देखे हुए
ख़्वाब वैसे तो इक इनायत है
आँख खुल जाए तो मुसीबत है
वो दिन भी थे कि इन आँखों में इतनी हैरत थी
तमाम बाज़ीगरों को मिरी ज़रूरत थी