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GHAZAL

लोग सह लेते थे हँस कर कभी बे-ज़ारी भी

लोग सह लेते थे हँस कर कभी बे-ज़ारी भी

अब तो मश्कूक हुई अपनी मिलन-सारी भी

वार कुछ ख़ाली गए मेरे तो फिर आ ही गई

अपने दुश्मन को दुआ देने की हुश्यारी भी

उम्र भर किस ने भला ग़ौर से देखा था मुझे

वक़्त कम हो तो सजा देती है बीमारी भी

किस तरह आए हैं इस पहली मुलाक़ात तलक

और मुकम्मल है जुदा होने की तय्यारी भी

ऊब जाता हूँ ज़ेहानत की नुमाइश से तो फिर

लुत्फ़ देता है ये लहजा मुझे बाज़ारी भी

उम्र बढ़ती है मगर हम वहीं ठहरे हुए हैं

ठोकरें खाईं तो कुछ आए समझदारी भी

अब जो किरदार मुझे करना है मुश्किल है बहुत

मस्त होने का दिखावा भी है सर भारी भी

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लोग सह लेते थे हँस कर कभी बे-ज़ारी भी — Shariq Kaifi • ShayariPage