एक मुद्दत हुई घर से निकले हुए

एक मुद्दत हुई घर से निकले हुए

अपने माहौल में ख़ुद को देखे हुए

एक दिन हम अचानक बड़े हो गए

खेल में दौड़ कर उस को छूते हुए

सब गुज़रते रहे सफ़-ब-सफ़ पास से

मेरे सीने पे इक फूल रखते हुए

जैसे ये मेज़ मिट्टी का हाथी ये फूल

एक कोने में हम भी हैं रक्खे हुए

शर्म तो आई लेकिन ख़ुशी भी हुई

अपना दुख उस के चेहरे पे पढ़ते हुए

बस बहुत हो चुका आइने से गिला

देख लेगा कोई ख़ुद से मिलते हुए

ज़िंदगी भर रहे हैं अँधेरे में हम

रौशनी से परेशान होते हुए