सो अब ये शर्त-ए-हयात ठहरी
सो अब ये शर्त-ए-हयात ठहरी
कि शहर के सब नजीब अफ़राद

@parveen-shakir
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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सो अब ये शर्त-ए-हयात ठहरी
कि शहर के सब नजीब अफ़राद
उस ने मेरे हाथ में बाँधा
उजला कंगन बेले का
रुत बदली तो भंवरो ने तितली से कहा
आज से तुम आज़ाद हो
मुझे मालूम था
ये दिन भी दुख की कोख से फूटा है
सात सुहागनें और मेरी पेशानी!
संदल की तहरीर
दिल-आज़ारी भी इक फ़न है
और कुछ लोग तो
गहरी भूरी आँखों वाला इक शहज़ादा
दूर देस से
जान
मुझे अफ़्सोस है
तुम्हारा कहना है
तुम मुझे बे-पनाह शिद्दत से चाहते हो
अभी मैं ने दहलीज़ पर पाँव रक्खा ही था कि
किसी ने मिरे सर पे फूलों भरा थाल उल्टा दिया
वही नर्म लहजा
जो इतना मुलाएम है जैसे
मैं ने सारी उम्र
किसी मंदिर में क़दम नहीं रक्खा
वो एक लड़की
कि जिस से शायद मैं एक पल भी नहीं मिली हूँ
कच्चा सा इक मकाँ कहीं आबादियों से दूर
छोटा सा एक हुज्रा फ़राज़-ए-मकान पर
नहीं मेरा आँचल मेला है
और तेरी दस्तार के सारे पेच अभी तक तीखे हैं
अपनी पिंदार की किर्चियाँ
चुन सकूँगी
अंदेशों के दरवाज़ों पर
कोई निशान लगाता है
'पत्थर की ज़बाँ'' की शाएरा ने
इक महफ़िल-ए-शेर-ओ-शायरी में
गुड़िया सी ये लड़की
जिस की उजली हँसी से
मुसाहिब-ए-शाह से कहो कि
फ़क़ीह-ए-आज़म भी आज तस्दीक़ कर गए हैं