जब कभी ख़ूबी-ए-क़िस्मत से तुझे देखते हैं
जब कभी ख़ूबी-ए-क़िस्मत से तुझे देखते हैं
आइना-ख़ाने की हैरत से तुझे देखते हैं

@parveen-shakir
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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जब कभी ख़ूबी-ए-क़िस्मत से तुझे देखते हैं
आइना-ख़ाने की हैरत से तुझे देखते हैं
मलाल है मगर इतना मलाल थोड़ी है
ये आँख रोने की शिद्दत से लाल थोड़ी है
आँखों के लिए जश्न का पैग़ाम तो आया
ताख़ीर से ही चाँद लब-ए-बाम तो आया
वही परिंद कि कल गोशागीर ऐसा था
पलक झपकते हवा में लकीर, ऐसा था
मुश्किल है कि अब शहर में निकले कोई घर से
दस्तार पे बात आ गई होती हुई सर से
बजा कि आँख में नींदों के सिलसिले भी नहीं
शिकस्त-ए-ख़्वाब के अब मुझ में हौसले भी नहीं
एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा
आँख हैरान है क्या शख़्स ज़माने से उठा
तराश कर मेरे बाज़ू उड़ान छोड़ गया
हवा के पास बरहना कमान छोड़ गया
क्या करे मेरी मसीहाई भी करने वाला
ज़ख़्म ही ये मुझे लगता नहीं भरने वाला
अपनी ही सदा सुनूँ कहाँ तक
जंगल की हवा रहूँ कहाँ तक
वक़्त-ए-रुख़्सत आ गया दिल फिर भी घबराया नहीं
उस को हम क्या खोएँगे जिस को कभी पाया नहीं
गवाही कैसे टूटती मुआ'मला ख़ुदा का था
मिरा और उस का राब्ता तो हाथ और दुआ का था
क़दमों में भी तकान थी घर भी क़रीब था
पर क्या करें कि अब के सफ़र ही अजीब था
चराग़-ए-राह बुझा क्या कि रहनुमा भी गया
हवा के साथ मुसाफ़िर का नक़्श-ए-पा भी गया
डसने लगे हैं ख़्वाब मगर किस से बोलिए
मैं जानती थी पाल रही हूँ संपोलिए
अगरचे तुझ से बहुत इख़्तिलाफ़ भी न हुआ
मगर ये दिल तिरी जानिब से साफ़ भी न हुआ
हम ने ही लौटने का इरादा नहीं किया
उस ने भी भूल जाने का वा'दा नहीं किया
इक हुनर था कमाल था क्या था
मुझ में तेरा जमाल था क्या था
पा-ब-गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन
दस्त-बस्ता शहर में खोले मिरी ज़ंजीर कौन
शौक़-ए-रक़्स से जब तक उँगलियाँ नहीं खुलतीं
पाँव से हवाओं के बेड़ियाँ नहीं खुलतीं