Shayari Page
GHAZAL

डसने लगे हैं ख़्वाब मगर किस से बोलिए

डसने लगे हैं ख़्वाब मगर किस से बोलिए

मैं जानती थी पाल रही हूँ संपोलिए

बस ये हुआ कि उस ने तकल्लुफ़ से बात की

और हम ने रोते रोते दुपट्टे भिगो लिए

पलकों पे कच्ची नींदों का रस फैलता हो जब

ऐसे में आँख धूप के रुख़ कैसे खोलिए

तेरी बरहना-पाई के दुख बाँटते हुए

हम ने ख़ुद अपने पाँव में काँटे चुभो लिए

मैं तेरा नाम ले के तज़ब्ज़ुब में पड़ गई

सब लोग अपने अपने अज़ीज़ों को रो लिए

ख़ुश-बू कहीं न जाए प इसरार है बहुत

और ये भी आरज़ू कि ज़रा ज़ुल्फ़ खोलिए

तस्वीर जब नई है नया कैनवस भी है

फिर तश्तरी में रंग पुराने न घोलिए

Comments

Loading comments…
डसने लगे हैं ख़्वाब मगर किस से बोलिए — Parveen Shakir • ShayariPage