एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा

एक सूरज था कि तारों के घराने से उठा

आँख हैरान है क्या शख़्स ज़माने से उठा


किस से पूछूँ तिरे आक़ा का पता ऐ रहवार

ये अलम वो है न अब तक किसी शाने से उठा


हल्क़ा-ए-ख़्वाब को ही गिर्द-ए-गुलू कस डाला

दस्त-ए-क़ातिल का भी एहसाँ न दिवाने से उठा


फिर कोई अक्स शुआ'ओं से न बनने पाया

कैसा महताब मिरे आइना-ख़ाने से उठा


क्या लिखा था सर-ए-महज़र जिसे पहचानते ही

पास बैठा हुआ हर दोस्त बहाने से उठा