वही परिंद कि कल गोशागीर ऐसा था

वही परिंद कि कल गोशागीर ऐसा था

पलक झपकते हवा में लकीर, ऐसा था


उसे तो दोस्त के हाथों की सूझबूझ भी थी

ख़ता न होता किसी तौर, तीर ऐसा था


पयाम देने का मौसम, न हमनवा पाकर

पलट गया दबे पाँव, सफ़ीर ऐसा था


किसी भी शाख़ के पीछे पनाह लेती मैं

मुझे वो तोड़ ही लेता, शरीर ऐसा था


हँसी के रंग बहुत मेहरबान थे लेकिन

उदासियों से ही निभती, ख़मीर ऐसा था


तेरा कमाल कि पाओं में बेड़ियाँ डालें

ग़ज़ाल-ए-शौक़ कहाँ का असीर ऐसा था