अब भला छोड़ के घर क्या करते
अब भला छोड़ के घर क्या करते
शाम के वक़्त सफ़र क्या करते

@parveen-shakir
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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अब भला छोड़ के घर क्या करते
शाम के वक़्त सफ़र क्या करते
कमाल-ए-ज़ब्त को ख़ुद भी तो आज़माऊँगी
मैं अपने हाथ से उस की दुल्हन सजाऊँगी
पूरा दुख और आधा चाँद
हिज्र की शब और ऐसा चाँद
बहुत रोया वो हम को याद कर के
हमारी ज़िंदगी बरबाद कर के
अपनी रुस्वाई तिरे नाम का चर्चा देखूँ
इक ज़रा शेर कहूँ और मैं क्या क्या देखूँ
गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह
दिल पे उतरेंगे वही ख़्वाब अज़ाबों की तरह
बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा
इस ज़ख़्म को हम ने कभी सिलते नहीं देखा
बादबाँ खुलने से पहले का इशारा देखना
मैं समुंदर देखती हूँ तुम किनारा देखना
तेरी ख़ुश्बू का पता करती है
मुझ पे एहसान हवा करती है
टूटी है मेरी नींद मगर तुम को इस से क्या
बजते रहें हवाओं से दर तुम को इस से क्या
अब इतनी सादगी लाएँ कहाँ से
ज़मीं की ख़ैर माँगें आसमाँ से
अपनी तन्हाई मिरे नाम पे आबाद करे
कौन होगा जो मुझे उस की तरह याद करे
रस्ता भी कठिन धूप में शिद्दत भी बहुत थी
साए से मगर उस को मोहब्बत भी बहुत थी
बख़्त से कोई शिकायत है न अफ़्लाक से है
यही क्या कम है कि निस्बत मुझे इस ख़ाक से है
ग़ज़लों का हुनर अपनी आँखों को सिखाएँगे
रोएँगे बहुत लेकिन आँसू नहीं आएँगे
अक्स-ए-ख़ुशबू हूंबिखरने से न रोके कोई
और बिखर जाऊंतो मुझ को न समेटे कोई
इक हुनर था कमाल था क्या था
मुझ में तेरा जमाल था क्या था
मुश्किल है कि अब शहर में निकले कोई घर से
दस्तार पे बात आ गई होती हुई सर से
बारिश हुई तो फूलों के तन चाक हो गए
मौसम के हाथ भीग के सफ़्फ़ाक हो गए
बिछड़ा है जो इक बार तो मिलते नहीं देखा
इस ज़ख़्म को हम ने कभी सिलते नहीं देखा