ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समुंदरों ही के लहजे में बात करता है

@waseem-barelvi
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है
समुंदरों ही के लहजे में बात करता है
ये सोच कर कोई अहद-ए-वफ़ा करो हमसे
हम एक वादे पे उम्रें गुज़ार देते हैं
क्या दुख है समंदर को बता भी नहीं सकता
आँसू की तरह आँख तक आ भी नहीं सकता
कुछ तो कर आदाब-ए-महफ़िल का लिहाज़
यार ये पहलू बदलना छोड़ दे
धूप के एक ही मौसम ने जिन्हें तोड़ दिया
इतने नाज़ुक भी ये रिश्ते न बनाये होते
मोहब्बत के घरों के कच्चे-पन को ये कहाँ समझें
इन आँखों को तो बस आता है बरसातें बड़ी करना
अपनी इस आदत पे ही इक रोज़ मारे जाएँगे
कोई दर खोले न खोले हम पुकारे जाएँगे
क्या बताऊँ कैसा ख़ुद को दर-ब-दर मैंने किया
उम्र भर किस किसके हिस्से का सफ़र मैंने किया
तुम्हारा प्यार तो साँसों में साँस लेता है
जो होता नश्शा तो इक दिन उतर नहीं जाता
किसी से कोई भी उम्मीद रखना छोड़ कर देखो
तो ये रिश्ते निभाना किस क़दर आसान हो जाए
ख़ुद को मनवाने का मुझको भी हुनर आता है
मैं वो कतरा हूँ समंदर मेरे घर आता है
तू समझता है कि रिश्तों कि दुहाई देंगे
अरे हम तो वो हैं तेरे चेहरे से दिखाई देंगे
कौन सी बात कहाँ कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो तो हर बात सुनी जाती है
छोटी छोटी बातें करके, बड़े कहाँ हो जाओगे
पतली गलियों से निकलो तो खुली सड़क पर आओगे
वो मेरे चेहरे तक अपनी नफरतें लाया तो था
मैंने उसके हाथ चूमे और बेबस कर दिया
वो मेरी पीठ में ख़ंजर ज़रूर उतारेगा
मगर निगाह मिलेगी तो कैसे मारेगा
हम कुछ ऐसे तेरे दीदार में खो जाते हैं
जैसे बच्चे भरे बाज़ार में खो जाते हैं
तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते
इसलिए तो तुम्हे हम नज़र नहीं आते
जो देखने में बहुत ही क़रीब लगता है
उसी के बारे में सोचो तो फ़ासला निकले
तुम मेरी तरफ़ देखना छोड़ो तो बताऊँ
हर शख़्स तुम्हारी ही तरफ़ देख रहा है