पराई आग पे रोटी नहीं बनाऊँगा
पराई आग पे रोटी नहीं बनाऊँगा
मैं भीग जाऊँगा छतरी नहीं बनाऊँगा

@tehzeeb-hafi
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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पराई आग पे रोटी नहीं बनाऊँगा
मैं भीग जाऊँगा छतरी नहीं बनाऊँगा
बिछड़कर उसका दिल लग भी गया तो क्या लगेगा
वो थक जाएगा और मेरे गले से आ लगेगा
ये किस ने बाग़ से उस शख़्स को बुला लिया है
परिंद उड़ गए पेड़ों ने मुँह बना लिया है
सब परिंदों से प्यार लूँगा मैं
पेड़ का रूप धार लूँगा मैं
यूँ नहीं है कि फ़क़त मैं ही उसे चाहता हूँ
जो भी उस पेड़ की छाँव में गया बैठ गया
सहरा से हो के बाग़ में आया हूँ सैर को
हाथों में फूल हैं मेरे पाँव में रेत है
मैं सुख़न में हूँ उस जगह कि जहाँ
साँस लेना भी शायरी है मुझे
मैं जंगलों की तरफ़ चल पड़ा हूँ छोड़ के घर
ये क्या कि घर की उदासी भी साथ हो गई है
पेड़ मुझे हसरत से देखा करते थे
मैं जंगल में पानी लाया करता था
मैं जिस के साथ कई दिन गुज़ार आया हूँ
वो मेरे साथ बसर रात क्यूँ नहीं करता
इस लिए रौशनी में ठंडक है
कुछ चराग़ों को नम किया गया है
इक तेरा हिज्र दाइमी है मुझे
वर्ना हर चीज़ आरज़ी है मुझे
तमाम नाख़ुदा साहिल से दूर हो जाएँ
समुंदरों से अकेले में बात करनी है
वो जिस की छाँव में पच्चीस साल गुज़रे हैं
वो पेड़ मुझ से कोई बात क्यूँ नहीं करता
दास्ताँ हूँ मैं इक तवील मगर
तू जो सुन ले तो मुख़्तसर भी हूँ
ये एक बात समझने में रात हो गई है
मैं उस से जीत गया हूँ कि मात हो गई है
तेरा चुप रहना मेरे ज़हन में क्या बैठ गया
इतनी आवाज़ें तुझे दीं कि गला बैठ गया
मैं कि काग़ज़ की एक कश्ती हूँ
पहली बारिश ही आख़िरी है मुझे
तेरे लगाए हुए ज़ख़्म क्यूँ नही भरते
मेरे लगाए हुए पेड़ सूख जाते हैं
गले मिलना न मिलना तो तेरी मर्ज़ी है लेकिन
तेरे चेहरे से लगता है तेरा दिल कर रहा है