सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं

@mirza-ghalib
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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सब कहाँ कुछ लाला-ओ-गुल में नुमायाँ हो गईं
ख़ाक में क्या सूरतें होंगी कि पिन्हाँ हो गईं
बेदाद-ए-इश्क़ से नहीं डरता मगर 'असद'
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा
की मेरे क़त्ल के बाद उस ने जफ़ा से तौबा
हाए उस ज़ूद-पशीमाँ का पशीमाँ होना
रहिए अब ऐसी जगह चल कर जहाँ कोई न हो
हम-सुख़न कोई न हो और हम-ज़बाँ कोई न हो
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ बचें कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता ग़म-ए-रोज़गार होता
आए है बेकसी-ए-इश्क़ पे रोना 'ग़ालिब'
किस के घर जाएगा सैलाब-ए-बला मेरे बा'द
अपनी गली में मुझको न कर दफ़्न बाद-ए-क़त्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यूँ तेरा घर मिले
या रब वो न समझे हैं न समझेंगे मिरी बात
दे और दिल उनको जो न दे मुझको ज़बाँ और
बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल
कहते हैं जिसको इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का
न सताइश की तमन्ना न सिले की परवा
गर नहीं हैं मिरे अशआर में मअ'नी न सही
तेशे बग़ैर मर न सका कोहकन 'असद'
सरगश्ता-ए-ख़ुमार-ए-रुसूम-ओ-क़ुयूद था
मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दआ क्या है
धौल-धप्पा उस सरापा नाज़ का शेवा नहीं
हम ही कर बैठे थे ‘ग़ालिब’ पेश-दस्ती एक दिन
गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हा-ए-रोज़गार
लेकिन तिरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं रहा
वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
वो शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल कहाँ
ग़ुरूर-ए-लुत्फ़-ए-साक़ी नश्शा-ए-बे-बाकी-ए-मस्ताँ
नम-ए-दामान-ए-इस्याँ है तरावत मौज-ए-कौसर की
नश्शा-हा शादाब-ए-रंग-ओ-साज़-हा मस्त-ए-तरब
शीशा-ए-मय सर्व-ए-सब्ज़-ए-जू-ए-बार-ए-नग़्मा है
फिर उसी बेवफ़ा पे मरते हैं
फिर वही ज़िंदगी हमारी है
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब'
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं