लफ़्ज़ कितने ही तेरे पैरों से लिपटे होंगे
लफ़्ज़ कितने ही तेरे पैरों से लिपटे होंगे
तूने जब आख़िरी ख़त मेरा जलाया होगा

@khalil-ur-rehman-qamar
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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लफ़्ज़ कितने ही तेरे पैरों से लिपटे होंगे
तूने जब आख़िरी ख़त मेरा जलाया होगा
अपनी आँखों में 'क़मर' झाँक के कैसे देखूँ
मुझ से देखे हुए मंज़र नहीं देखे जाते
एक चेहरे से उतरती हैं नक़ाबें कितनी
लोग कितने हमें इक शख़्स में मिल जाते हैं
वक़्त बदलेगा तो इस बार मैं पूछूँगा उसे
तुम बदलते हो तो क्यूँ लोग बदल जाते हैं
तेरे दिल के निकाले हम कहाँ भटके कहाँ पहुँचे
मगर भटके तो याद आया भटकना भी ज़रूरी था
मैं समझा था तुम हो तो क्या और माँगू
मेरी ज़िन्दगी में मेरी आस तुम हो
कुछ न रह सका जहाँ विरानियाँ तो रह गईं
तुम चले गए तो क्या कहानियाँ तो रह गईं
मेरी बरसों की उदासी का सिला कुछ तो मिले
उस से कह दो वो मेरा क़र्ज़ चुकाने आए
तुम भी वैसे थे मगर तुम को ख़ुदा रहने दिया
इस तरह तुम को ज़माने से जुदा रहने दिया
ख़्वाब पलकों की हथेली पे चुने रहते हैं
कौन जाने वो कभी नींद चुराने आए
ख़िलाफ़-ए-शर्त-ए-अना था वो ख़्वाब में भी मिले
मैं नींद नींद को तरसा मगर नहीं सोया
आँख में नम तक आ पहुँचा हूँ
उसके ग़म तक आ पहुँचा हूँ