दर्द बे-रहम है
दर्द बे-रहम है
जल्लाद है दर्द

@javed-akhtar
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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दर्द बे-रहम है
जल्लाद है दर्द
वो जो कहलाता था दीवाना तिरा
वो जिसे हिफ़्ज़ था अफ़्साना तिरा
दिल वो सहरा था
कि जिस सहरा में
मैं कितनी सदियों से तक रहा हूँ
ये काएनात और इस की वुसअत
कुछ तुम ने कहा
कुछ मैं ने कहा
घर में बैठे हुए क्या लिखते हो
बाहर निकलो
गलियाँ
और गलियों में गलियाँ
ख़ला के गहरे समुंदरों में
अगर कहीं कोई है जज़ीरा
मेरा आँगन
कितना कुशादा कितना बड़ा था
एक पत्थर की अधूरी मूरत
चंद ताँबे के पुराने सिक्के
हम दोनों जो हर्फ़ थे
हम इक रोज़ मिले
मैं अक्सर सोचता हूँ
ज़ेहन की तारीक गलियों में
ये आए दिन के हंगामे
ये जब देखो सफ़र करना
जब वो कम-उम्र ही था
उस ने ये जान लिया था कि अगर जीना है
करोड़ों चेहरे
और उन के पीछे
शाम होने को है
लाल सूरज समुंदर में खोने को है
मैं जब भी
ज़िंदगी की चिलचिलाती धूप में तप कर
मिरे मुख़ालिफ़ ने चाल चल दी है
और अब
मैं भूल जाऊँ तुम्हें
अब यही मुनासिब है
मैं बंजारा
वक़्त के कितने शहरों से गुज़रा हूँ