और क्या चाहती है गर्दिश-ए-अय्याम कि हम
और क्या चाहती है गर्दिश-ए-अय्याम कि हम
अपना घर भूल गए उन की गली भूल गए

@jaun-elia
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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और क्या चाहती है गर्दिश-ए-अय्याम कि हम
अपना घर भूल गए उन की गली भूल गए
इक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं
उस के पहलू से लग के चलते हैं
हम कहीं टालने से टलते हैं
नाम पे हम क़ुर्बान थे उस के लेकिन फिर ये तौर हुआ
उस को देख के रुक जाना भी सब से बड़ी क़ुर्बानी थी
मुद्दतों बाद इक शख़्स से मिलने के लिए
आइना देखा गया, बाल सँवारे गए
हम को यारों ने याद भी न रखा
'जौन' यारों के यार थे हम तो
न करो बहस हार जाओगी
हुस्न इतनी बड़ी दलील नहीं
रंग की अपनी बात है वर्ना
आख़िरश ख़ून भी तो पानी है
पड़ी रहने दो इंसानों की लाशें
ज़मीं का बोझ हल्का क्यूँ करें हम
हो न पाया ये फैसला अब तक
कीजिए आप तो क्या कीजे
मत पूछो कितना ग़मगीं हूँ गंगा जी और जमुना जी
ज़्यादा तुमको याद नहीं हूँ गंगा जी और जमुना जी
आज का दिन भी ऐश से गुज़रा
सर से पाँव तक बदन सलामत है
निकहत-ए-पैरहन से उस गुल की
सिलसिला बे-सबा रहा मेरा
याराँ वो जो है मेरा मसीहा-ए-जान-ओ-दिल
बे-हद अज़ीज़ है मुझे अच्छा किए बग़ैर
मैं पैहम हार कर ये सोचता हूँ
वो क्या शय है जो हारी जा रही है
जिस को ख़ुद मैं ने भी अपनी रूह का इरफ़ाँ समझा था
वो तो शायद मेरे प्यासे होंटों की शैतानी थी
रूहों के पर्दा-पोश गुनाहों से बे-ख़बर
जिस्मों की नेकियाँ ही गिनाता रहा हूँ मैं
सब से पुर-अम्न वाक़िआ ये है
आदमी आदमी को भूल गया
सुब्ह तक वज्ह-ए-जाँ-कनी थी जो बात
मैं उसे शाम ही को भूल गया
है कुछ ऐसा कि जैसे ये सब कुछ
इस से पहले भी हो चुका है कहीं