रह-गुज़र-ए-ख़याल में दोश-ब-दोश थे जो लोग
रह-गुज़र-ए-ख़याल में दोश-ब-दोश थे जो लोग
वक़्त की गर्द-बाद में जाने कहाँ बिखर गए

@jaun-elia
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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रह-गुज़र-ए-ख़याल में दोश-ब-दोश थे जो लोग
वक़्त की गर्द-बाद में जाने कहाँ बिखर गए
जो रानाई निगाहों के लिए सामान-ए-जल्वा है
लिबास-ए-मुफ़्लिसी में कितनी बे-क़ीमत नज़र आती
वो जो न आने वाला है ना उस से मुझ को मतलब था
आने वालों से क्या मतलब आते हैं आते होंगे
अपने अंदर हँसता हूँ मैं और बहुत शरमाता हूँ
ख़ून भी थूका सच-मुच थूका और ये सब चालाकी थी
अहद-ए-रफ़ाक़त ठीक है लेकिन मुझ को ऐसा लगता है
तुम तो मेरे साथ रहोगी मैं तन्हा रह जाऊँगा
अब जो रिश्तों में बँधा हूँ तो खुला है मुझ पर
कब परिंद उड़ नहीं पाते हैं परों के होते
कौन सूद-ओ-ज़ियाँ की दुनिया में
दर्द ग़ुर्बत का साथ देता है
मुझ से अब लोग कम ही मिलते हैं
यूँ भी मैं हट गया हूँ मंज़र से
मर चुका है दिल मगर ज़िंदा हूँ मैं
ज़हर जैसी कुछ दवाएँ चाहिए
जौन' उठता है यूँ कहो या'नी
'मीर'-ओ-'ग़ालिब' का यार उठता है
किस से इज़हार-ए-मुद्दआ कीजे
आप मिलते नहीं हैं क्या कीजे
ग़म-ए-फ़ुर्क़त का शिकवा करने वाली
मेरी मौजूदगी में सो रही है
कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे
उस के होंटों पे रख के होंट अपने
बात ही हम तमाम कर रहे हैं
ये मत भूलो कि ये लम्हात हम को
बिछड़ने के लिए मिलवा रहे हैं
अब मैं सारे जहाँ में हूँ बदनाम
अब भी तुम मुझको जानती हो क्या
बात ही कब किसी की मानी है
अपनी हठ पूरी कर के छोड़ोगी
सोचूँ तो सारी उम्र मोहब्बत में कट गई
देखूँ तो एक शख़्स भी मेरा नहीं हुआ
कैसा दिल और इस के क्या ग़म जी
यूँ ही बातें बनाते हैं हम जी
या'नी तुम वो हो वाक़ई हद है
मैं तो सच-मुच सभी को भूल गया