कूचा-ए-इश्क़ में निकल आया
कूचा-ए-इश्क़ में निकल आया
जिस को ख़ाना-ख़राब होना था

@jigar-moradabadi
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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कूचा-ए-इश्क़ में निकल आया
जिस को ख़ाना-ख़राब होना था
दिल गया रौनक़-ए-हयात गई
ग़म गया सारी काएनात गई
सब को मारा 'जिगर' के शेरों ने
और 'जिगर' को शराब ने मारा
हम इश्क़ के मारों का इतना ही फ़साना है
रोने को नहीं कोई हँसने को ज़माना है
जहल-ए-ख़िरद ने दिन ये दिखाए
घट गए इंसाँ बढ़ गए साए
ले के ख़त उन का किया ज़ब्त बहुत कुछ लेकिन
थरथराते हुए हाथों ने भरम खोल दिया
दिल को सुकून रूह को आराम आ गया
मौत आ गई कि दोस्त का पैग़ाम आ गया
मोहब्बत में इक ऐसा वक़्त भी दिल पर गुज़रता है
कि आँसू ख़ुश्क हो जाते हैं तुग़्यानी नहीं जाती
उस ने अपना बना के छोड़ दिया
क्या असीरी है क्या रिहाई है
सदाक़त हो तो दिल सीनों से खिंचने लगते हैं वाइज़
हक़ीक़त ख़ुद को मनवा लेती है मानी नहीं जाती
हमीं जब न होंगे तो क्या रंग-ए-महफ़िल
किसे देख कर आप शरमाइएगा
इब्तिदा वो थी कि जीना था मोहब्बत में मुहाल
इंतिहा ये है कि अब मरना भी मुश्किल हो गया
दोनों हाथों से लूटती है हमें
कितनी ज़ालिम है तेरी अंगड़ाई
यूँ ज़िंदगी गुज़ार रहा हूँ तिरे बग़ैर
जैसे कोई गुनाह किए जा रहा हूँ मैं
मिरी ज़िंदगी तो गुज़री तिरे हिज्र के सहारे
मिरी मौत को भी प्यारे कोई चाहिए बहाना
इश्क़ जब तक न कर चुके रुस्वा
आदमी काम का नहीं होता
तिरे जमाल की तस्वीर खींच दूँ लेकिन
ज़बाँ में आँख नहीं आँख में ज़बान नहीं
तेरी आँखों का कुछ क़ुसूर नहीं
हाँ मुझी को ख़राब होना था
अपना ज़माना आप बनाते हैं अहल-ए-दिल
हम वो नहीं कि जिनको ज़माना बना गया
उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे