वहाँ ईद क्या वहाँ दीद क्या
वहाँ ईद क्या वहाँ दीद क्या
जहाँ चाँद रात न आई हो

@shariq-kaifi
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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वहाँ ईद क्या वहाँ दीद क्या
जहाँ चाँद रात न आई हो
अंदर-अंदर ख़ुश हैं दोनों
पहला-पहला झगड़ा कर के
जिस्म आया किसी के हिस्से में
दिल किसी और की अमानत है
इश्क़ कहाँ अब पहले वाला होता है
इश्क़ से बढ़कर इश्क़ का चर्चा होता है
सभी से राज़ कह देता हूँ अपने
न जाने क्या छुपाना चाहता हूँ
ये चुपके चुपके न थमने वाली हँसी तो देखो
वो साथ है तो ज़रा हमारी ख़ुशी तो देखो
झिझकता हूँ उसे इल्ज़ाम देते
कोई उम्मीद अब भी रोकती है
साल के आख़िरी दिन उसने दिया वक़्त हमें
अब तो ये साल कई साल नहीं गुज़रेगा
किसी को फिर भी महँगे लग रहे थे
फ़क़त साँसों का खर्चा था हमारा
उसे यूँ चेहरा-चेहरा ढूँढता हूँ
वो जैसे रात-दिन सड़कों पे होगा
हमीं तक रह गया क़िस्सा हमारा
किसी ने ख़त नहीं खोला हमारा
काश वो दिन वो ज़माने लौट आएँ
बिन तुम्हारे भी गुज़ारा था कभी
ज़माने पहले जिसे डूबना था डूब गया
न जाने अब यहाँ किसको बचाने आता हूँ
फ़ासला रख कर भी क्या हासिल हुआ
आज भी उसका ही कहलाता हूँ मैं
ठीक से ज़ख़्म का अंदाज़ा किया ही किसने
बस सुना था कि बिछड़ते हैं तो मर जाते हैं
मना लिया है उसे फिर उसी की शर्तों पर
तमाम उम्र किसे रूठने की फुरसत थी
तुम वो लड़की मुझे लगती तो नहीं
आम गोपी से जो राधा हो जाए
रोना हो आसान हमारा
इतना कर नुक़्सान हमारा
बैठ कर बात की और जुदा हो गए
कोई शिकवा नहीं कोई झगड़ा नहीं
कहाँ रोते उसे शादी के घर में
सो इक सूनी सड़क पर आ गए हम